ढुढने निकलेते है बाजारों मे वो दिल कहाँ मिलता
कस्ती हो मौजों की बीचमे तो फिर साहिल कहाँ मिलता ।
रह रह्कर उठती है नज़र तलाशती है किसिको
दिन के उज्यालों मे सपनों का कातिल कहाँ मिलता ।
अपने आप से निकलकर चल दुनियाँ के साथ अब
जो खुद मे गुम होकर चले उन्हे मन्जिल कहाँ मिलता ।
काबिलियत तो बहुत खुब है तुझमे भी इस जहाँ के
जो किसिकी खिदामत ना करे उसे कामील कहाँ मिलता ।
हमारी आदत रही है रहबरे-जिन्दगी की
तेरे महल मे सुकुन-ए-साईल कहाँ मिलाता ।
साइल (भिखारी )
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